अजीब सी लगती है
अजीब सी लगती है
सूरज की पहली लाली
जैसे करती हो इंतज़ार
मेरे आँखों के खुलने का
और फिर बड़ी बेदर्दी से
चौंधिया देने वाली रौशनी
आँखों में झोंककर
तसल्ली करती हो देखकर
मेरे खुशियों की अर्थी
जो उस शाम से निकली पड़ी है
जब से मेरी माँ गुजरी है
उस शाम की अब भी सुबह नहीं है
फिर भी देखता हूँ
हर दिन सूरज को उगते
निर्लज़्ज़, निःसंकोच तरीके से,
जिसकी इबादत में माँ ने
भूख, प्यास और नींद भी छोड़ी थी
खुश लगता है ऊपरवाला भी
जिंदगी लेकर,
जिसके हिस्से का प्रसाद 'भरपूर'
माँ ने चढ़ाया था
उसका पेट भी भर गया हो जैसे
इसलिए ठुकरा दिया बड़े शान से कहके,
मुझे धरती पर अब तेरी जरूरत नहीं
कितनी आसानी से कह दिया था
डॉक्टर ने उस दिन
तुम्हारी माँ अब नहीं रही
जैसे कुछ हुआ न हो
कोई पत्ता हिला न हो
माँ कसम शरीर का हर कतरा रोया था
चिता पर देख के उसका चेहरा आखिरी बार
और शमशान घाट की
पर भभकती आग की लपटों ने फिर ठंडक दी थी
जैसे मुझसे कह रही हों
चलो और दुःख अब नहीं झेलेगी माँ |
Part I
अजीब सी लगती है
सूरज की पहली लाली
जैसे करती हो इंतज़ार
मेरे आँखों के खुलने का
और फिर बड़ी बेदर्दी से
चौंधिया देने वाली रौशनी
आँखों में झोंककर
तसल्ली करती हो देखकर
मेरे खुशियों की अर्थी
जो उस शाम से निकली पड़ी है
जब से मेरी माँ गुजरी है
उस शाम की अब भी सुबह नहीं है
फिर भी देखता हूँ
हर दिन सूरज को उगते
निर्लज़्ज़, निःसंकोच तरीके से,
जिसकी इबादत में माँ ने
भूख, प्यास और नींद भी छोड़ी थी
खुश लगता है ऊपरवाला भी
जिंदगी लेकर,
जिसके हिस्से का प्रसाद 'भरपूर'
माँ ने चढ़ाया था
उसका पेट भी भर गया हो जैसे
इसलिए ठुकरा दिया बड़े शान से कहके,
मुझे धरती पर अब तेरी जरूरत नहीं
कितनी आसानी से कह दिया था
डॉक्टर ने उस दिन
तुम्हारी माँ अब नहीं रही
जैसे कुछ हुआ न हो
कोई पत्ता हिला न हो
माँ कसम शरीर का हर कतरा रोया था
चिता पर देख के उसका चेहरा आखिरी बार
और शमशान घाट की
पर भभकती आग की लपटों ने फिर ठंडक दी थी
जैसे मुझसे कह रही हों
चलो और दुःख अब नहीं झेलेगी माँ |
Part I