स्त्री कहलाती दुनिया में त्याग की मूर्ति,
अफ़सोस किसी ने न सोचा, क्या है इनकी सामाजिक स्थिति
कभी माँ तो कभी बेटी, कभी बहन तो कभी बीवी
बन अनगिनत फर्जों को अदा ये करतीं ।
पुरुषों की भावहीन दुनिया में करुणामयी प्रेम-रस घोलती,
अनन्त अत्याचारों के बावजूद उफ़ तक न करती
कभी पति तो कभी पुत्र सेवा में अपना सर्वेस्व उड़ेलती स्त्री ,
नि:स्वार्थ त्याग को जीवन धर्म मानती ।
क्यों निष्ठुर समाज न कभी समझ पाया इनकी वृति
कि है अधिकार समान इनका भी, उतना ही ही प्रेम नियति
'जगवालों संभल जाओ' है देती चेतावनी ये धरती
वरना विमुख रहोगे जीवनभर, न होगी होगी कभी तुम्हारे प्रेमाकांक्षाओं की पूर्ति ।।
'शशांक'
सन्दर्भ: यह कविता 'सत्यमेव-जयते' नामक धारावाहिक से प्रेरित होकर लिखी गयी है । आज समाज को जरुरत है कि यह अपनी सोच का दायरा विस्तृत करे तथा स्त्रियों के प्रति उदारवादी नज़रिया अपनाए ।
अफ़सोस किसी ने न सोचा, क्या है इनकी सामाजिक स्थिति
कभी माँ तो कभी बेटी, कभी बहन तो कभी बीवी
बन अनगिनत फर्जों को अदा ये करतीं ।
पुरुषों की भावहीन दुनिया में करुणामयी प्रेम-रस घोलती,
अनन्त अत्याचारों के बावजूद उफ़ तक न करती
कभी पति तो कभी पुत्र सेवा में अपना सर्वेस्व उड़ेलती स्त्री ,
नि:स्वार्थ त्याग को जीवन धर्म मानती ।
क्यों निष्ठुर समाज न कभी समझ पाया इनकी वृति
कि है अधिकार समान इनका भी, उतना ही ही प्रेम नियति
'जगवालों संभल जाओ' है देती चेतावनी ये धरती
वरना विमुख रहोगे जीवनभर, न होगी होगी कभी तुम्हारे प्रेमाकांक्षाओं की पूर्ति ।।
'शशांक'
सन्दर्भ: यह कविता 'सत्यमेव-जयते' नामक धारावाहिक से प्रेरित होकर लिखी गयी है । आज समाज को जरुरत है कि यह अपनी सोच का दायरा विस्तृत करे तथा स्त्रियों के प्रति उदारवादी नज़रिया अपनाए ।
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