कभी तनहाइयाँ होती थीं शौकों में बिताने के लिए
अब आदत है 'शौकों' की तनहाइयों भुलाने के लिए
है मुजरिम वक़्त और गवाह भी बदलती इन फिजाओं का
कि खुश होते थे कभी जो मिलके हमसे बेइन्तेहाँ
वो ही लाख बहाने ढूँढते हैं
अब हमसे नज़रे चुराने के लिए |
'शशांक'
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