Ideas only matter in this world. Let us generate them in full. Poems are words unsaid, emotions unexpressed and feelings unfelt.
Wednesday, December 26
Friday, October 5
Thursday, October 4
Tuesday, October 2
Tuesday, September 25
मैंने सोचा है
तुझे लम्हों में
हर पल, हर सुबह, हर शाम |
तुझे देखा है
ख्वाबों में
भोली, चंचल, कोमल सी
जैसे पहली बार मिली थी मुझसे
तू अजनबी, जुदा, बिलकुल अनजान |
मैं सोचता हूँ
आज भी
शिद्दत से तुझे
जैसे गहराइयों से मेरे दिल की
सिर्फ उठे है तेरा नाम |
मैं जानता हूँ
ये जो दूर से दिखते हैं
दो किनारों के मंजर,
धरती और अम्बर
नहीं मिलते हैं जीवनभर |
फिर भी चाहता हूँ
तुझे मैं
बेझिझक बेइनतहां
मोहब्बत की गुलपोश धरती पे
मिटाके अपना नामोनिशान |
'शशांक'
भोली, चंचल, कोमल सी
जैसे पहली बार मिली थी मुझसे
तू अजनबी, जुदा, बिलकुल अनजान |
मैं सोचता हूँ
आज भी
शिद्दत से तुझे
जैसे गहराइयों से मेरे दिल की
सिर्फ उठे है तेरा नाम |
मैं जानता हूँ
ये जो दूर से दिखते हैं
दो किनारों के मंजर,
धरती और अम्बर
नहीं मिलते हैं जीवनभर |
फिर भी चाहता हूँ
तुझे मैं
बेझिझक बेइनतहां
मोहब्बत की गुलपोश धरती पे
मिटाके अपना नामोनिशान |
'शशांक'
Sunday, September 23
Friday, September 14
Tuesday, September 11
Monday, September 10
'देश बदलेंगे'
'देश बदलेंगे'
है प्रचलन में काफी ये नारा
सबके करीब, सबको प्यारा
जैसे हो देश बदलना धर्म हमारा !
देख आन्दोलन करते लोगों को
खुश बहुत भारत माता
पर सवाल है अब भी उसका
फर्क नहीं जिनपर अनपढ़, गरीब, बेचारों का
क्या असर पड़ेगा उनपर नए-नए प्रावधानों का !
देश जो बनता है लोगों के मिलने से
वो कैसे बदलेगा केवल कानूनों के सविंधान में जुटने से
है दम तो बोलो 'हम बदलेंगे'
फिर देखो कैसे नहीं बदलता ये देश हमारा !
है प्रचलन में काफी ये नारा
सबके करीब, सबको प्यारा
जैसे हो देश बदलना धर्म हमारा !
देख आन्दोलन करते लोगों को
खुश बहुत भारत माता
पर सवाल है अब भी उसका
फर्क नहीं जिनपर अनपढ़, गरीब, बेचारों का
क्या असर पड़ेगा उनपर नए-नए प्रावधानों का !
देश जो बनता है लोगों के मिलने से
वो कैसे बदलेगा केवल कानूनों के सविंधान में जुटने से
है दम तो बोलो 'हम बदलेंगे'
फिर देखो कैसे नहीं बदलता ये देश हमारा !
Tuesday, September 4
Monday, September 3
Sunday, September 2
Monday, August 27
Thursday, August 23
मेरे घर के सामने एक हरा-भरा मैदान,
पेड़ जिसमें अनेकों बरगद, शीशम, सागवान,
उनपर आया रहने झुण्ड परिंदों का इसबार
अद्भुत, अनुपम, मनोरम दृश्य पूर्ण सजीव साकार |
उड़ते, चहचहाते, झुण्ड में कलरव करते
और आंगन में कभी गेहूं के दाने चखते
परिंदे देख-देख जिन्हें मैं हर्षित परेशान |
हर्ष, कि कितनी मनभावन दुनिया इनकी,
पेड़ जिसमें अनेकों बरगद, शीशम, सागवान,
उनपर आया रहने झुण्ड परिंदों का इसबार
अद्भुत, अनुपम, मनोरम दृश्य पूर्ण सजीव साकार |
उड़ते, चहचहाते, झुण्ड में कलरव करते
और आंगन में कभी गेहूं के दाने चखते
परिंदे देख-देख जिन्हें मैं हर्षित परेशान |
हर्ष, कि कितनी मनभावन दुनिया इनकी,
परेशान, क्यूंकि नहीं समझता इनकी बोली इंसान
जो देती हरवक्त भाईचारे और उन्मुक्त जीवन का पैगाम
और जो कानों में चुपके से कहती,
कि चाहे कहो उसे 'शशांक' या 'रहमान'
सबसे पहले वो है 'इंसान' ||
'शशांक'
जो देती हरवक्त भाईचारे और उन्मुक्त जीवन का पैगाम
और जो कानों में चुपके से कहती,
कि चाहे कहो उसे 'शशांक' या 'रहमान'
सबसे पहले वो है 'इंसान' ||
'शशांक'
Tuesday, June 12
1.
मैं चुप हरदम हमेशा,
किसे सुनाता अपनी व्यथा,
डर के बादल, शोषण का कुहरा
बचपन मेरा था ऐसे गुजरा ।
अपना था वो पूरा अपना,
है अबतक इस बात का रोना
कहता मुझको अपना खिलौना,
पर खेल-खेल में उजाड़ दिया मेरा बचपन सलोना ।।
2.
बाल-मन मेरा घबराया सहमा सा
दर्द के साये में हरवक्त डूबा सा
शीशों सी चुभती उसके आने की आहटें
और आहटों में कैद तड़प मेरे मन की
उस तड़प का है आजीवन दीदार किया
दर्द में मैंने दर्द से हरदम इकरार किया ।।
सन्दर्भ: ये दो कवितायेँ बाल-शोषण जैसे गंभीर मुद्दे पर कुछ कहना चाहती हैं। अगर यें लोगों को इस समस्या के बारे में थोडा भी सोचने पर मजबूर कर पायीं तो मेरा प्रयास सफल होगा ।
Tuesday, June 5
'स्त्री'
स्त्री कहलाती दुनिया में त्याग की मूर्ति,
अफ़सोस किसी ने न सोचा, क्या है इनकी सामाजिक स्थिति
कभी माँ तो कभी बेटी, कभी बहन तो कभी बीवी
बन अनगिनत फर्जों को अदा ये करतीं ।
पुरुषों की भावहीन दुनिया में करुणामयी प्रेम-रस घोलती,
अनन्त अत्याचारों के बावजूद उफ़ तक न करती
कभी पति तो कभी पुत्र सेवा में अपना सर्वेस्व उड़ेलती स्त्री ,
नि:स्वार्थ त्याग को जीवन धर्म मानती ।
क्यों निष्ठुर समाज न कभी समझ पाया इनकी वृति
कि है अधिकार समान इनका भी, उतना ही ही प्रेम नियति
'जगवालों संभल जाओ' है देती चेतावनी ये धरती
वरना विमुख रहोगे जीवनभर, न होगी होगी कभी तुम्हारे प्रेमाकांक्षाओं की पूर्ति ।।
'शशांक'
सन्दर्भ: यह कविता 'सत्यमेव-जयते' नामक धारावाहिक से प्रेरित होकर लिखी गयी है । आज समाज को जरुरत है कि यह अपनी सोच का दायरा विस्तृत करे तथा स्त्रियों के प्रति उदारवादी नज़रिया अपनाए ।
अफ़सोस किसी ने न सोचा, क्या है इनकी सामाजिक स्थिति
कभी माँ तो कभी बेटी, कभी बहन तो कभी बीवी
बन अनगिनत फर्जों को अदा ये करतीं ।
पुरुषों की भावहीन दुनिया में करुणामयी प्रेम-रस घोलती,
अनन्त अत्याचारों के बावजूद उफ़ तक न करती
कभी पति तो कभी पुत्र सेवा में अपना सर्वेस्व उड़ेलती स्त्री ,
नि:स्वार्थ त्याग को जीवन धर्म मानती ।
क्यों निष्ठुर समाज न कभी समझ पाया इनकी वृति
कि है अधिकार समान इनका भी, उतना ही ही प्रेम नियति
'जगवालों संभल जाओ' है देती चेतावनी ये धरती
वरना विमुख रहोगे जीवनभर, न होगी होगी कभी तुम्हारे प्रेमाकांक्षाओं की पूर्ति ।।
'शशांक'
सन्दर्भ: यह कविता 'सत्यमेव-जयते' नामक धारावाहिक से प्रेरित होकर लिखी गयी है । आज समाज को जरुरत है कि यह अपनी सोच का दायरा विस्तृत करे तथा स्त्रियों के प्रति उदारवादी नज़रिया अपनाए ।
Sunday, May 6
Sunday, March 25
Sunday, February 26
तेरा गम
मेरे अश्कों की खता क्या है,
जुदा होके भी ये तेरा मुझसे जुड़ा क्या है?
तलब ये आज फिर उठी कैसी है
मेरे सूखे अश्कों में ये तेरी याद छुपी कैसी है ।
शायद गुजरा हूँ मैं आज, उन गलियों से फिर तेरी
उन पूरानी गलियों में आज भी तेरी याद बसी कैसे है ।
अब तक,
अब तक याद करता है नासमझ दिल ये मेरा बस यही
तेरा वो बरसों पुराना मिलने का वादा,
किया था जो तूने,
मोहल्ले के चौराहे पे कभी
वो वादा आज भी अधुरा क्यूं है,
वो चौराहा आज भी सुना क्यूं है ।
खुदा कसम, सौ गम सह लूँ मैं तेरे वास्ते,
पर तेरे जाने का गम इतना बड़ा क्यूं है,
इतना बड़ा क्यूं है ।
Sunday, January 22
Sweet Sunshine
O sweet sunshine of winter!
Tell us how to live life better.
Ur eternal battle with shadow,
Is this the key to an eventful future?
The future built on fight and survive,
And Not on flight at first sight
Will the heart ever understand the message,
Hidden in the battle of sunshine.
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